एक कैद बेटा (Qaid Beta) जेल में रह कर भी अपने पिता की समस्याएँ सुलझा देता है| जहाँ चाह, वहाँ राह|
रोष अगले रविवार की शाम अपने परिवार को आनंद के घर ले गया, लेकिन वह अभी भी सोच रहा था कि वह कैसे अपने पिता की मदद कर सकता है|
आनंद अपने विशाल गेराज से एक आध्यात्मिक चर्चा ग्रुप चलाने लगा था, जो अब हफ्तावार मिलने में ज़रा नियमित हो चला था|
हर सप्ताहांत (वीकेंड), आनंद हिन्दू ग्रंथों से एक अलग विषय पर घंटे-भर के लिए हिंदी में बोलता| बैठक के आरंभ और अंत में अकसर एक-दो भजन होते, जिन्हें विष्णु अपनी भावपूर्ण आवाज़ में गाता| साउंड सिस्टम और ऑर्केस्ट्रा का आयोजन फीजियन भारतीय रामायण मण्डली के सदस्य करते|
रोष को ज़िम्मेदारी दी गयी थी, कि जब भी वह बैठकों में उपस्थित हो, तो वार्ता के अंत में सारांश देते हुए बैठक के योगदानकर्ताओं और दर्शकों को धन्यवाद देते हुए सभा का समापन करे|
फिर मेहमानों को आनंद की पत्नी का बनाया हुआ चाय-नाश्ता परोसा जाता| आनंद मन के भोजन के साथ-साथ तन का भोजन भी परोसने में विश्वास रखता था|
कभी-कभी सभा में बाँटने के लिए दर्शक-गण भी हल्का-फुल्का नाश्ता ले आते थे, जब वे कोई व्यक्तिगत घटना जैसे जन्मदिन या कोई व्यक्तिगत उपलब्धि जैसे नौकरी मिलना आदि की खुशी मनाना चाह रहे होते थे| हंसता-खेलता सामाजिक समूह था ये, और इसमें आने वालों की संख्या लगातार बढ़ रही थी|
रोष भक्ति-भाव से मंदिर नहीं जाया करता था, लेकिन अपने परिवार को नियमित हिन्दू धार्मिक शिक्षा सत्रों में ले जाने का विचार, जहाँ उसके बच्चे भारतीय संस्कृति, भारतीय शास्त्रों और विश्व भर से आये भारतीय मूल के लोगों से भी दो-चार हो सकेंगे, उसे बहुत रुचा था – खासकर अब, जब कि उसके बड़े लड़के को अपने एंग्लिकन बोर्डिंग स्कूल (होस्टल वाला अंग्रेज़ी स्कूल) से अनिवार्य ईसाई धार्मिक शिक्षा मिल रही थी|
आमतौर पर रोष काम में बहुत व्यस्त रहता था – वीकेंड में भी, तो इन बैठकों में शामिल होने की अपनी इच्छा पूरी करने के लिए उसे मजबूरन काम में कटौती करनी पड़ी, जिससे आनंद के घर से आते-जाते परिवार को कार में एक-दूसरे के साथ अच्छा वक़्त बिताने का सुनहरा मौका मिलने लगा|
हालाँकि आनंद अपने व्यापक रूढ़िवादी हिंदू श्रोताओं के लिए सनातन हिन्दू धर्म से जुड़े विषयों पर ही अकसर बोलता था, लेकिन वह उनपर अच्छा शोध भी करता था और खूब जानकारी भी रखता था| चुनाँचे, वह हिन्दू विचारधारा की अपनी समझ और विश्लेषण में खुलापन रखने की कोशिश करता|
हालाँकि रोष तो अपनी आम मस्ती में आनंद के गंभीर आध्यात्मिक प्रवचनों में सवाल पूछने या हल्की-फुल्की टिप्पणियाँ करते रहने से बाज़ नहीं आता था, लेकिन आनंद के अन्य श्रोतागण उसके प्रवचनों के दौरान कभी कुछ नहीं बोलते थे|
तो, आनंद को भी असल में रोष की मुँहज़ोरी से मज़ा आता, खासतौर पर इसलिए कि मज़ाकिया होने के साथ-साथ उसकी बात में गहराई भी होती थी, और वो किसी बात का कभी मखौल नहीं उड़ाता था|
तो वह रोष की जिज्ञासा का स्वागत करता, क्योंकि उससे उसे खुद भी सोचने और अनुसंधान करने की दिशा मिलती थी| रोष भी इस बात का ख्याल रखता कि मर्यादा की लक्ष्मणरेखा कभी पार न हो|
हालाँकि चुपचाप बैठकर वहाँ कही गई बातों को शांति से सुनने-समझने के लिए जोश बहुत छोटा था, लेकिन होश उन्हें बड़े ध्यान से सुनता था| नतीजन, हर सेशन के बाद उसके पास ढेरों सवाल होते, और माँगेरे से घर लौटते हुए 30 किमी की ड्राइव में रोष भरपूर कोशिश करता उसके सवालों के जवाब देने की|
रोष अपने परिवार को समझाता धर्म और जीवन पर अपने दृष्टिकोण, और इस मौके का इस्तेमाल करता भारतीय पौराणिक कहानियाँ पूर्वजों की नैतिक और सांस्कृतिक गाथाओं की तरह सुनाने में, न कि हिन्दू देवी-देवताओं के पवित्र धार्मिक और अध्यात्मिक इतिहास की तरह, जैसे कि वे भारत में अमूमन सुनाई जाती थीं|
कुल मिलाकर, इन बैठकों में परिवार के शामिल होने से उनमें बोंडिंग (एका) बढ़ी, और साथ ही साथ उसकी निगाह में कुछ महत्वपूर्ण ज़रूरतें भी पूरी हुईं - जैसे कि उसके बच्चों का उसकी भाषा और जड़ों से जुड़ना, और उनमें जीवन के बारे में एक तर्कसंगत और धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण पनपने के लिए भूमि का तैयार होना| तो, लागत और आय के नुकसान के बावजूद, वह हफ्ते-दर-हफ्ते वापस लौटता रहा था|
मंडली के बाकी सदस्यों की तरह, आनंद ने महसूस किया, कि आमतौर पर शोख रोष आज बहुत चुप-चुप सा है| मीटिंग पूरी होने के बाद, जब अधिकाँश सदस्य चाय पी कर लौट चुके थे, आनंद आकर रोष की बगल में बैठ गया| उसने रोष से पूछा कि माजरा क्या है|
“इन्हें लगता है कि ये भारत में रह रहे अपने पिता के लिए कुछ अधिक कर नहीं पा रहे हैं,” रोष के पास ही बैठी ईशा ने जवाब दिया, “क्योंकि ये उनसे इतनी दूर रहते हैं|”
“लेकिन तुम्हारे पिता तो खुशहाल हैं, नहीं?” आनंद ने पूछा| “क्या उन्हें तुम्हारी मदद की ज़रूरत है? क्या वे खुश नहीं कि ऑकलैंड आने के बाद तुम खुद अपने परिवार का पेट पाल रहे हो, और अपने लिए उनसे और खर्चा-पानी नहीं माँग रहे?”
“बात पैसे की नहीं है,” रोष ने जवाब दिया| “और भी चीज़ें होती हैं जो एक वयस्क पुत्र को अपने पिता के लिए करनी चाहियें| मैं उनके लिए उनमें से कुछ भी नहीं कर सका|”
“जहाँ चाह, वहाँ राह,” आनंद ने कहा| “तुम एक अच्छे बेटे हो| कोई रास्ता ढूँढ लोगे|”
“मैं यहाँ से क्या कर सकता हूँ!” रोष ने उदासी से कहा| “मैं तो उनसे इतनी दूर हूँ|”
उसने आनंद को बताया कि वो क्यों परेशान था, और दूरी की वजह से कुछ न कर पाने की अपनी असमर्थता के बारे में कैसा महसूस करता था|
"दूरियाँ दिलों से होती हैं," आनंद अपने दोस्त पर मुस्कराया, “शरीरों से नहीं| हम अपने दिलों की दूरी से जुदा होते हैं, अपने शरीरों की दूरी से नहीं|”
“एक बूढ़ा इटालियन आदमी गाँव में अकेला रहता था| टमाटर उगाने के लिए वह एक कुछ क्यारियाँ खोदना चाहता था, लेकिन बूढ़ी काया अब ऐसी कड़ी मशक्कत करने के काबिल नहीं रही थी|”
“उसका इकलौता लड़का, जो जब घर होता था तो उसकी मदद कर दिया करता था, आजकल जेल में था | बूढ़े ने अपने लड़के को चिट्ठी लिखी, जिसमें उसने अपने जिगर में भरी निराशा उड़ेल डाली|”
मियो कारो फिग्लियो, इओ ती दीको ... (मेरे प्यारे बेटे, मैं क्या बताऊँ ...)
बुआई का मौसम है, और टमाटर कम हैं मेरे पास| मुझे बड़ा बुरा लग रहा है, क्योंकि इस साल मैं कोई टमाटर न बो पाऊंगा| अब बगीचे में क्यारियाँ खोदने की मेरी उम्र रही नहीं| अगर तू यहाँ होता, तो मेरी सब मुसीबतें खत्म हो जातीं| मेरे लिए प्लाट जोत देता तू|
आमोरे दा पापा (प्यार, पिता से)
"कुछ दिनों बाद, उसे अपने कैद बेटे से एक चिट्ठी मिली|”
कारो पापा (प्रिय पिता),
उस प्लाट को खोदने की कोशिश भी मत करना| ये बहुत ज़रूरी है, आप समझ रहे हो | उस प्लाट को बिल्कुल नहीं खोदना! मैं आपको बाद में बताऊंगा, जब मैं वापिस आ जाऊंगा...
आमोरे, तुओ फिग्लियो (प्यार, आपका बेटा)
“अगली सुबह, बहुत सवेरे ही, कराबिनिएरी और पोलिज़िया (इटली में विभिन्न पुलिस बल) का हुजूम बूढ़े के घर पर आ धमका| उन्होंने पूरा खेत खोद डाला|”
“जब उन्हें कुछ दिलचस्प बरामद न हुआ, तो उन्होंने बूढ़े से माफी माँगी और लौट गए| एक हफ्ते बाद, बूढ़े को अपने कैदी बेटे से एक और ख़त मिला|”
कारो पापा (प्रिय पिता),
अब अपने टमाटर बो लो| इन हालात में, मैं इतना ही कर सकता था|
आमोरे, तुओ फिग्लियो