ज़्यादातर बोझ (Bojh) जिन्हें हम ढोते रहते हैं, वे बोझ मन के होते हैं|
दो बौद्ध भिक्षुओं की कहानी|
वृद्ध भिक्षु ने असहाय लड़की की मदद तो की, पर उसे वहीं छोड़ आया...
"अब थूक दे अपना गुस्सा,” कोष ने प्यार से अपने बेटे से कहा, "और कुछ खा ले| अगर तू नहीं खायेगा, तो मैं भी नहीं खाऊंगा|"
रोष ने अपने पिता की ओर देख कर नाराज़गी जताई, “मेरी गलती भी नहीं थी और आपको गुस्सा आ गया|"
"माफ़ कर दे पुत्तर, तेरी गलती नहीं थी,” कोष ने ईमानदारी से जवाब दिया। "उसके लिए माफ़ी दे दे यार|”
“बड़े भी कभी-कभी गलतियाँ कर सकते हैं, है न| पर तुझे इतनी देर तक नाराज़ नहीं रहना चाहिए|”
"अगर बड़ों को गलत बात पे गुस्सा आ सकता है, तो मुझे क्यों नहीं, जबकि असली नाइंसाफी तो मेरे साथ हुई है?” रोष ने सवाल किया|
कोष ने अपने बेटे को अपनी बाँहों में उठा लिया और उसे उस तपते अँधेरे कमरे से नीचे ले आया जिसमें उसने खुद को घंटों से क़ैद कर रखा था|
जब देव दोनों के लिए रात का खाना परोस रहे थे, तो कोष ने कहना जारी रखा, “हाँ, मुझे गुस्सा आता है| और तुझे भी गुस्सा करने का हक है| गुस्सा करना निशानी ही तो है इंसान होने की|”
“लेकिन मेरा गुस्सा पल-भर का है| आता है| और जितनी जल्दी आता है, उतनी ही जल्दी चला भी जाता है| तेरा लेकिन, बहुत देर रुकता है| ये अच्छा नहीं| न तेरे लिए, न दूसरों के लिए|”
"जब मैं बच्चा था, मैंने दो बौद्ध भिक्षुओं की एक कहानी सुनी थी, जो बाढ़ में डूबे एक इलाके से गुज़र रहे थे| बौद्ध भिक्षु सख्त व्रतों से भरा जीवन जीते हैं, जिनमें से एक है ब्रह्मचर्य| इनके समाज में उन्हें औरत को छूने की भी इजाज़त नहीं है|”
“जब बाढ़ग्रस्त क्षेत्र से निकलते ये दोनों भिक्षु एक मोड़ के दूसरी तरफ पहुंचे, तो एक झोंपड़ी की छत पर फंसी एक प्यारी सी सुन्दर बाला को उन्होंने देखा|”
“पानी अभी भी चढ़ रहा था, क्योंकि चारों ओर मूसलाधार बारिश हो रही थी| बढ़ते खतरे से कन्या भयभीत थी, लेकिन फिर भी बाढ़ के पानी में उतरने की उसकी हिम्मत नहीं हो रही थी|”
“यहाँ बच्ची,” बड़े भिक्षु ने कहा| “मेरी पीठ पर चढ़ जा| मैं तुझे पार ले चलूँगा|”
युवा भिक्षु चौंक गया, लेकिन चुप रहा|
‘मुझे सब्र सिखाता है,’ उसने सोचा, ‘लेकिन पहला मौका आया, तो ख़ुद को रोक नहीं सका| अपने लिए एक क़ानून, दूसरों के लिए दूसरा| कैसा पाखंडी है!’
बड़े भिक्षु ने लड़की को अपनी पीठ पर उठा लिया और आगे बढ़ चला| उनके पीछे चुपचाप चलते, वह खुद को सोचने से रोक नहीं सका, ‘मुझसे उसे उठाने को कह सकता था| मैं ज़्यादा जवान और ताक़तवर हूँ| क्यों नहीं कहा? उसे छूने को इतना बेताब हो रहा था|’
रह-रह कर उसे लड़की की ख़ूबसूरती भी नज़र आती| वो जितना देखता और सोचता, उतना अपराध भाव और हिक़ारत के बीच चिर जाता, ‘वो तो सिर्फ उसकी मदद करने की कोशिश कर रहा है| अपने उदाहरण से मेरा मार्गदर्शन करने की कोशिश कर रहा है| उफ़, मैं ऐसा क्यों महसूस कर रहा हूँ? अपने गुरु पर इस तरह अविश्वास कैसे कर सकता हूँ मैं?’
चुपचाप, भिक्षु बाढ़-पीड़ित मैदान पार करते रहे| युवा भिक्षु अपने सवालों और ख्यालों में उबलता रहा| क्रोध ने विवेक को हरा दिया| चलते हुए वह बोला नहीं, लेकिन बड़े की चुस्ती उसे बेचैन कर गई| धूप सोखता, चिड़ियों की चहचहाहट का रस लेता, वह बड़ी उमंग में लग रहा था|
सब तरफ गीलापन और ठंड थी, लेकिन युवा भिक्षु के अन्दर गुस्सा धुआँ रहा था| धीरे-धीरे चढ़ता, जैसे धरती के गहरे गर्भ के भीतर से मैग्मा ऊपर की ओर उठ रहा हो|
‘क्या ये धम्म (धर्म) है?’ वह कुढ़ता सोचता रहा| ‘कोई आश्चर्य नहीं कि हमें स्त्री से दूर रहने को कहा जाता है| देख लो, अपने स्पर्श मात्र से वह उसका कैसा हाल कर रही है| और बिना छुए, मेरी कैसी गत बना रही है|’
जब वे आख़िरकार ऊँची ज़मीन पर सुरक्षित पहुँच गए, तो बड़े ने लड़की को नीचे उतार दिया| मठ तक पहुँचते-पहुँचते छोटा ज़र्द पड़ चुका था, लेकिन उसने अपनी ज़ुबान पर काबू रखा| बूढ़ा हँसी-ख़ुशी अपने काम निपटाता रहा, लेकिन युवा का ध्यान काम में बिलकुल न लगा|
बाढ़ की वजह से बने कामों को ख़त्म करते-करते बचा-खुचा दिन जल्दी ख़त्म हो गया| रात हुई और भिक्षु सोने चले गए| वृद्ध भिक्षु शांति से खर्राटे भर रहा था| युवा, जो उसकी बगल में लेटा जाग रहा था, करवटें बदल रहा था|
समय कछुए की चाल चलता आगे रेंग रहा था| तड़पते भिक्षु को देखता, उसे उसके हाल पर छोड़ कर आगे बढ़ जाने से झिझकता| आधी रात के बाद युवा भिक्षु ख़ुद को और नहीं रोक पाया|
सोते भिक्षु को झकझोर कर उसने मांग की, “सफाई दो अपनी!”
"क्या?" वृद्ध चौंक कर नींद से उठ बैठा| “कैसी सफाई?"
"महिला!" युवा ने हाँफते हुए इलज़ाम लगाया|
"कौन महिला?” अभी-भी अधसोए बूढ़े ने, नींद के नशे में पूछा|
“आपको याद तक नहीं?” छोटा बिफर उठा| “वो प्यारी-सी युवती जिसे आप अपनी पीठ पर लिए-लिए फिरे| हमें तो औरतों को छूने तक की इजाज़त नहीं, उठा कर घूमना तो दूर की बात है| आपने उसे उठाया क्यों?”
“ओह वो!” वृद्ध ने निढाल होकर जवाब दिया| “मैं तो उसे वहीं पीछे छोड़ आया| तुम क्यों उसे अभी तक लिए-लिए फिर रहे हो?”
जब नन्हे रोष ने असमंजस से अपने पिता को देखा, तो कोष ने समझाया, “बड़ा तो केवल डरी, असहाय लड़की को सुरक्षा तक ले गया था, लेकिन युवा भिक्षु तो उसे यहाँ मठ तक ले आया|”
“सदेह नहीं, पर वो अब भी उसी के साथ थी| ज़्यादातर बोझ जिन्हें हम ढोते रहते हैं पुत्तर, वे बोझ मन के होते हैं|”
“जब मैं क्रोधित होता हूँ, उफान आता है, फिर चला जाता है| इसे बदला तो नहीं जा सकता, लेकिन ये होता किसी कारण से ही है| मैं ऐसा करता हूँ, पर फिर आगे बढ़ जाता हूँ| वृद्ध की तरह|”
“लेकिन तू अपने सभी दर्द याद रखता है| जब तू ऐसा करता है, तो तू उन्हें उठाये रहता है| अपने ज़ख्म हरे रखता है| उन्हें अपने ऊपर से नीचे उतार, और आगे बढ़| चोटों को छेड़ते रहने से वो ताज़ा रहती हैं, गहरा जाती हैं|”
“विस्मरण घाव भर देता है| जिन बातों को हम माफ़ नहीं भी कर सकते, उन्हें भी हमें जाने ही देना चाहिए| क्योंकि जब तक हम उन्हें जाने नहीं देते, तब तक उनसे दूर होने का अपना सफर शुरू नहीं कर सकते| जिन चोटों को हम भूल चुके हैं, वो ज़ख्म भर गए हैं| ज़ख्म भरने दो|”